Abhishek Shukla

आख़िरी बार

कितना बेहतर होता ना
कि जीते जब कोई पल आख़िरी बार
तो पता होता
कि जी रहे हैं उसे आख़िरी बार

जैसे आख़िरी बार जब खेला था क्रिकेट दोस्तों के साथ
पता होता आख़िरी बार है
तो विकेट बचा कर खेलते
सूरज ढलने के बाद भी बॉल गुमने तक खेलते रहने के किए

या जब आख़िरी बार मिला था तुमसे
पता होता आख़िरी है
तो थामा होता तुम्हारे हाथ को थोड़ी ज़्यादा देर
उसके स्पर्श को कुछ देर और सोख लेने
कुछ और सर्द दिनों को जीवित रखने के लिए

गर पता होता आख़िरी है हर चालित स्वाँस का जीवन
तो खींच लेता उन्हें अपनी क्षमता से ज़्यादा
हर एक स्वाँस के जीवन में
दो जीवन जीने के लिए

क्या मेरे आख़िरी क्षण में भी
पता होगा मुझे कि यह मेरा आख़िरी है
या खेलता रहूँगा बॉल गुम जाने तक
और सर्द पड़ जाएगा शरीर
तुम्हारे स्पर्श की गर्मी ख़त्म होते ही
और निकल जाएगी आख़िरी स्वाँस शरीर से
जैसे निकल जाते हैं सभी आख़िरी
अकेले
एक नये आख़िरी की तलाश में

कितना बेहतर होता
गर पता होता
आख़िरी के अस्तित्व का सत्य
आख़िरी क्षण पहुँचने से पहले

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