Abhishek Shukla

ड्राफ़्ट फ़ोल्डर

हर लिखा हुआ विचार पूरा नहीं हो सकता।

लेखन प्रक्रिया में अगर लेखन के बाद सबसे कठिन कुछ है तो वह है स्वयं में इस बात की स्वीकृति लाना।

कहने को लेखन सृजन प्रक्रिया है, लेकिन कितनी ही बार लिखे हुए में कोई सृजन नहीं होता। उसके ज़रिए सिर्फ़ सफ़ाई होती है। आधे-अधूरे अधपके विचार शब्दों में निकल जाते हैं, और बजाय मन का कोई कोना घेरने के, घेर लेते हैं ड्राफ़्ट फ़ोल्डर की कुछ KB जगह।

उसी फ़ोल्डर में साथ होते हैं वो ड्राफ़्ट्स भी जो अभी भी सृजन प्रक्रिया में हैं। वो इन विचारों की तरह मृत नहीं हैं, उनमें संभावना है पूरा होने की। उनमें इंतज़ार है पूरा विचार हो जाने का। कायदे से देखा जाए तो वो ही असल ड्राफ़्ट्स हैं। मृत विचारों का उनके साथ कोई स्थान ही नहीं। उन्हें तो recycle bin में होना चाहिए। पर मन है कि मानता ही नहीं। वो इस बात की स्वीकृति पर आ ही नहीं पाता कि कुछ विचार पूरे नहीं किये जा सकते। कि चाहे अब उन्हें कितनी भी बार फिर से उठाया जाए, उनका कोई भविष्य नहीं। उनका उद्देश्य पूर्ण हो चुका है। वे अपना काम ख़त्म कर चुके हैं।

तो वे भी बने रहते हैं ड्राफ़्ट्स में। हर रोज़ जब पूरा करने के लिए ड्राफ़्ट्स खोजे जाते हैं तो उन पर भी नज़र पड़ती है। न जाने कितनी बार वे दोबारा खुलते हैं, वापस से बंद हो जाने के लिए। हर बार जब उन्हें दोबारा पढ़ा जाता है, वे चीख कर बताते हैं कि उनके साथ अब कुछ नहीं हो सकता। पर उन्हें पूरा करने को आसक्त मन, सुनता ही नहीं, उन्हें विदा करता ही नहीं।

मृत विचारों की बात आते ही लेखक बनिया हो जाता है। वो उन्हें पाले रहता है एक सपने की तरह। उसकी ज़्यादा लिखने की हवस उसे हर थोड़े दिन उनके पास लेकर जाती है। सोचता है, सोचता है, निवेश किया है तो कुछ लाभ तो मिले। कहानी नहीं तो छोटा सा गद्य बना कर पूरा कर देता हूँ। ब्लॉग पर कहने के लिए एक अधिक कृति हो जाएगी। कुछ पूरा लिखने की तसल्ली के लिए वो उसे घिसता रहता है। वो चाहता ही नहीं कि उसका लिखा एक शब्द भी अप्रकाशित रह जाए। वह कुछ भी व्यर्थ नहीं करना चाहता।

सो इस मोह में वो इन मृत विचारों को पाले रहता है। मृत विचारों की सड़ांध हर नए विचार को दूषित करती है। हर नया विचार अपने साथ पुराने को पूरा ना करने की ग्लानि लेकर आता है। लेखक चाहता है कि आगे बढ़ जाए, पर अपने ही मोह में फंसा रह जाता है। जिस स्थान को उसने मृत विचार लिख कर खाली किया था, उसी खाली स्थान पर वह उन्हें पूरा करने की ज़रूरत को स्थापित कर देता है। लेखक भूल जाता है कि लेखन बनियागिरी का नहीं, फ़क़ीरी का खेल है।

अंत में मृत विचार घेर लेते हैं पूरा ड्राफ़्ट्स फ़ोल्डर और लील जाते हैं अपने साथ सारे असल ड्राफ़्ट्स। लेखक इस रोज-रोज़ की खीज से तंग आकर बदल देता है नए ड्राफ़्ट्स का फ़ोल्डर। छोड़ देता है पूरे होने की संभावना वाले ख्यालों को मृत विचारों के साथ सड़ने, नष्ट होने के लिए।

हर लिखा हुआ विचार पूरा नहीं हो सकता। लेखक ये समझ ही नहीं पाता है। और इस चक्कर में गंवा बैठता कितने ही ऐसे विचार जो पूरे हो सकते थे। और इन्हीं फंसे हुए विचारों की सफाई के लिए लिखता है भविष्य और कितने ही मृत विचार।

मृत और जीवित विचारों का खेल चलता रहता है। सफाई चलती रहती है। लेखक ड्राफ़्ट फ़ोल्डर बदलता रहता है।

नोट: बनिया शब्द का इस्तेमाल जातिसूचक के रूप में नहीं, बल्कि उस मानसिक प्रवृत्ति को दर्शाने के लिए किया गया है जिसमें इंसान लाभ-हानि के गणित को जीवन की हर चीज़ और हर पहलू से ऊपर रख कर देखता है।