Abhishek Shukla

मैं चल पड़ता हूँ

मैं कठोर होकर स्वयं को आदेश देता हूँ
“चल उठ काम पर लग”
बिल भर दे जो पिछले महीने से बाक़ी है
टैक्स फ़ाइल करने का भी समय निकल रहा है
गाड़ी की सर्विसिंग भी करानी है
सारे बचे कामों का उलाहना देकर
स्वयं को उठाने के प्रयास करता हूँ
धमकी देता हूँ चीनी छोड़ देने की
पसंद का भोजन नहीं कराने की
कोई नई फ़िल्म नहीं दिखाने की
इस सबके बाद भी जब नहीं मानता
तो अतीत के कोई बहाने सोच
मन बहला लेता हूँ
“कुछ ग़लत हुआ होगा कभी मेरे साथ, जिस वजह से ऐसा हूँ मैं”
कहकर अपनी ज़िम्मेदारियों से
नाकामियों से
पल्ला झाड़ लेता हूँ
और सभी अधूरी आकांक्षाओं
बचे कामों का ज़िम्मा अपने पूर्वजों पर डालकर
पड़ा रहता हूँ जस का तस
एक तिनका भर भी हिले बिना

“आज मिलने आ सकते हो क्या?”
तुम इस एक आग्रह मात्र से
मेरे समस्त जीवन के प्रयासों, धमकियों, और बहानों को
धता बता देती हो

मैं चल पड़ता हूँ आध्यात्मिक मुसाफ़िर की तरह
भौतिक चिंतायें छोड़
तुम्हारी तलाश में
उन सभी ज़िम्मेदारियों की, आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए
जो कहने को मेरी थीं
पर जिनका मैं नहीं था

बन जाता हूँ मैं कुछ और
तुम्हारे नाम से जुड़ने की अभिलाषा में

क्या मैं वही इंसान हूँ जो भूकंप आने पर भी सोफ़ा से नहीं हिलता था?

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